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विकास एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जिसे बेहतर और स्थायी बनाने के लिए प्रयास होना चाहिए, लेकिन इसके लिए सहभागिता पहली शर्त है। स्कूल, कॉलेज तो खूब खोले जा रहे हैं, लेकिन स्तरीय पढ़ाई का संकट है। साथ ही इनमें न लाइब्रेरी है न पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर है। अध्यापक तक पूरे नहीं हैं। शिक्षक बनने के लिए तमाम नैतिक, अनैतिक साधनों का उपयोग किया जा रहा है। पुस्तकालय जहां हैं वहां भी उनका प्रयोग बेहद कम है। परिपाटी को बदलने या नए प्रयोग करने की कोई गुंजाइश नहीं है।
मुख्य समस्या ये है कि स्थानीय प्रबंधक शिक्षालयों को धन कमाने का माध्यम मान बैठे हैं। इसीलिए जब तक आवेदक पूरी शिक्षा के प्राविधिक दिशा में परिपक्व न हो तो उसे नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही जो जानकारी छात्र-छात्राओं को दी जा रही है, वह वैज्ञानिक दृष्टि से पूर्ण होनी चाहिए।
वैसे, कुछ मामलों सतर्कता बरती जाए तो सुधार संभव है। मसलन, विवि के नियमों और परिस्थियों का पुनरीक्षण किया जाए, जहां जरुरत हो नियमानुकूल दक्ष लोगों द्वारा सरकार से परिवर्तन कराए जायें। साथ ही स्कूल-कॉलेज खुलते वक्त नियमों पर खास ध्यान रखा जाए। इसके अलावा शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए जरूर है कि शिक्षकों का समय-समय पर परीक्षण किया जाये। शिक्षक अगर कमजोर हैं तो उन्हें दोबारा शिक्षित किया जाए।
इसके अलावा अगर विद्यार्थियों की समस्याओं का समाधान त्वरित हो जाए तो वो न उग्र्र होंगे और न ही आंदोलित। साथ ही शिक्षणेत्तर कार्यक्रम तो अतिअवश्य हैं। इसके तहत कोई न कोई शिक्षाविद विद्यालय का रोल मॉडल हो और उनके विचारों की गोष्ठियां हों, ताकि वे उनके अनुभव और विचारों का लाभ अपने जीवन में पा सकें।
प्रो. प्रतिमा अस्थाना, पूर्व कुलपति
गोरखपुर विवि
Tag: Development in Education, Moods of Education,शिक्षा में विकास, शिक्षा के बदलाव
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